कैसा उत्सव
कैसा उत्सव
कैसा अजीब ये अनुष्ठान है
जन जन में डर का स्थान है
रक्त बीज सा फैला ज़हर
उत्सव का ना कोई उत्साह है।
कैसी घड़ी ये आई माँ
गरबा ना डांडिया माँ
गुप चुप पूजन हो रहा
कैसे अर्पण करूँ पुष्पांजलि माँ ।
बजते नहीं ढाक बाजा
होती है आरती सादा
ना गीत का झंकार है
मेला ना व्यापार सजा।
पंडालों की सजावट नहीं
क़तारों में भीड़ नहीं
खतरा सर्वत्र लगा हुआ
घूमने का उमंग नहीं ।
भोग तुझे कैसे लगाऊँ
लाल चुनर कैसे पहनाऊँ
खेलूँ कैसे सिंदूर ,भरूँ कैसे खोइचा माँ
मन के मंदिर में ही आसन लगाऊँ ।
अगले बरस ना आना ऐसे
भर कलश लाना ख़ुशी फिर से
भक्तों को देना देवी दर्शन
आशीष लुटाना दोनों कर से।
