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गीता गुप्ता 'मन'

Others

5.0  

गीता गुप्ता 'मन'

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कैसा हो नवयुग बसन्त

कैसा हो नवयुग बसन्त

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मानव मानव का शत्रु बना

सम्बन्धों में मतभेद ठना

स्वार्थो ने ऐसा दिया बना,

न साधु रहा कोई न संत

कैसा हो नवयुग बसन्त।


बस चंद वृक्ष धरती पर है

 खिलते ये पुष्प गमलों भर है

 चल रही बसन्ती सर सर है

क्या हो इस विकास का अंत।

कैसा हो नवयुग बसन्त।



नवकोंपल वृक्षों ने धारे।

प्रमुदित होते पक्षी सारे।

कोकिल मधुकर नित गुंजारे।

है उठी समस्या फिर ज्वलंत।

कैसा हो नवयुग बसन्त।


है नवकवियों की फौज खड़ी

मिलती लिखने में मौज बड़ी

कविता ये देख के रो पड़ी।

व्याकुल है आज मधुमय बसन्त।

कैसा हो नवयुग बसन्त।


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