कामकाजी महिलाएं
कामकाजी महिलाएं
कामकाजी महिलायें
जब लौटती हैं अपने घरौंदों को
तो छिपा लेती हैं अपनी सारी पीड़ाएँ
पर्स की भीतर वाली जेब में
और ओढ़ लेती हैं नयी ताज़गी
फिर से अपनी देह में
और मन में भी
चाहती हैं बस इतना
कि जब लौटें वो
थोड़ा करीने से मिले घर
सलवटें ना हों चादरों पर
और माथों पर भी
चाहती हैं
एक अदद गर्म प्याली चाय
और कुछ मुस्कुराहटें
नहीं चाहती कोई प्रशंसा या सम्मान
बस चाहती हैं ना मिले कोई उलाहना
पद, पैसा ,पहचान कुछ नहीं ढ़ोती साथ
साथ रखती हैं ख्वाहिशें अपनों की
और जुटी रहतीं हैं बुनने
एक रंगबिरंगा आसमान
फिर भी अधूरा ही पाती हैं ख़ुद को
घर में और बाहर भी
घूरी जाती हैं हज़ारों निगाहों से
अपराधियों की तरह
और स्वीकार लेती हैं अक्सर
बिन किये हुए दोष
अपने सिर पर
अपनी ज़मीं को थामे
रचती हैं ये
कितनों के आसमान
ख़ुद की उड़ान छोड़ कर
देती हैं अनेक परवाज़
पर फिर भी कुछ
अलग कौम की मानी जाती हैं
अक्सर
ये कामकाजी महिलाएं।
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