जन्माष्टमी
जन्माष्टमी
देवकी देखत देव छटा,
सहसों रवि पुंज प्रतीत हुईं है।
रूप चतुर्भुज चक्र गदा संग,
धनुष वही जो परशु दई है।
मायापति माया दिव्य रची,
वेंडी हथकड़ी सब टूट गई है।
आदि अनादि अनंत सुखरासी,
मात की गोद किलकारी भरी है।
गारी सुरीली सुरुचि गुनीली गुनवारी छवि,
जासों हर जाम जीवन उर प्रभा रहें।
छवि छाकै छबीली ताकै दुवार दृगन के,
प्रेम पुंज मन माधव रावरी सरताज रहें।
हौंस हुमसावत हिय हौले सुवात भेंट कर,
आऐं बुलाएं कहें मटकीधर दध चखात रहें।
नयन फिराय नज़र मिलाय मथनी में हाथ दें,
चुनरी पकर खींचें रोकें टोकें बांसुरी सुनात रहें।
ऑठी खिलाऊ तोय कबहुँ तो आव गाँव,
पता चल जावेगा मधुरस का होत है।
तुम्हाए प्रासाद माहि प्रसाद स्वाद होय मानि,
हमाए गेह नेह भोग श्रद्धा पगे होत है।
साँझ सकारे जोत जेंवन से पहले तेरी,
तासों परिपूर्ण व्यंजन सुस्वाद होत है।
मैया तो देत होय पर तू न खात होय,
तेरे खावन से मेरी बढ़त कई गुन होत है।
सब भांति भली हौ बड़ी हम से,
ऐसे रूठन राधे सुहात नहीं है।
लघु ग्यारह मास दिवस पंद्रह,
हमें मैया कहि यह झूठ नहीं है।
तुम चौषठ कला परिपूर्ण प्रिये,
सोलह नाथ कहे क्या ज्ञात नहीं है।
पहिचानो मन भान करो खुद कौ,
मैं तुम तुम मैं दोउ अलग नहीं है।
ऋषि कुमार