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जंजीर और रक्स

जंजीर और रक्स

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एक ख्याल में डूबता चला जाता हूं

जितना सोचू तुम्हें भूलता चला जाता हूं


कितना समझाया कि उसे पास-ए-वफ़ा न था 

और मैं हूँ की जुनून करता चला जाता हूं


अभी भी इन जले हाथों में है खाक बाकी 

मगर मैं हूं की दश्त बुझाता चला जाता हूं


कई बार सोचा कि उस बज़्म में कर लूं बग़ावत 

मगर मैं तो उनके हुक्म सुनता चला जाता हूं


पाँव बंधे है मेरे तो वो सोचते है मैं हूं ग़ुलाम

यहाँ मैं अपनी धुन में रक्स करता चला जाता हूं


यहाँ तो सब लोग सुन कर भी है बहरे 

मैं हूं की अपना बयान दिया चला जाता हूं


एक वो है जो हमे मुड़ कर देखते भी नहीं

एक मैं हूं जो उनकी ओर खींचा चला जाता हूं


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