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जन मानस व्यथा

जन मानस व्यथा

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विकराल तांडव नाथ फिर इतनी धरा पर कीजिए ।

हर पाप का बदला यहाँ नटराज बनकर लीजिए ।

इन घोर निर्दय पापियों पर दूर से मत खीझिए ।

कर जोड़ बेबस जो खड़ा अब ध्यान उन पर दीजिए ।

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जब भी कभी विपदा पड़ी प्रभु इस धरा जग आन पर ।

गर में हलाहल नाथ धारण कर लिया रस मान कर ।

उपकार यह इतना बड़ा करता सदा गुणगान नर ।

मजबूर फिर कर जोड़ यह कहता इसे भगवान भर ।

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इन पापियों पर तेज चाबुक नाथ क्यों बरसा नहीं ।

इस भूख पावक से निशाचर बोल क्यों झुलसा नहीं ।

यह पाप तरु जड़ नाथ आखिर देख क्यों हुलसा नहीं ।

इतना भरा जब छीन कर मगरूर क्यों तरसा नहीं ।

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हरकत बुरी करता मगर रहता बड़े अभिमान से ।

अब खेलता यह जिन्दगी पर मोल रखकर शान से ।

करता बड़ा यह पाप पर डरता नहीं भगवान से ।

कुछ तो करों तुम नाथ अब दम घुट रहा अपमान से ।

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