जीवन एक दर्पण
जीवन एक दर्पण
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कौन कहता है कि जीवन एक दर्पण है?
मुझे तो अपना कोई प्रतिबिम्ब नहीं दिखता।
दिखती हैं तो सिर्फ तेरी वही पुरानी परछाइयाँ।
जिनका अक्स मेरी कविताओं में आज भी उतरता।
क्यों कहते हो कि जीवन एक दर्पण है?
कितनी कोशिश की कहीं तो खुद को पा लूँ।
ज़माने को तो मैं वैसे भी नजर नहीं आता।
सोचा इसी में खुद को देख थोड़ा इतरा लूँ।
पर सोचो तो मेरा अलग अस्तित्व ही कहाँ है।
दर्पण में मैं ही तो हूँ वहाँ, तेरा चेहरा जहाँ है।
जब पूरी जिंदगी ही तेरी यादों को अर्पण है।
तो फिर सच ही है कि जीवन एक दर्पण है।
