जहाँ इंसान बसते थे
जहाँ इंसान बसते थे
गलियों, मोहल्लों,और चौराहों से
रिश्ता टूटता जा रहा है ...
इंसान अब पत्थरों में
बसने लगा है....
देखो, इंसान का नया रूप
हाँ, विधाता ये तेरा इंसान ही है
जो कभी,
प्यार और इश्क की बातें करता था ..
भाईचारे में जान भी दे देता था ....
हर शाम चौराहे
दुल्हन की तरह सजते थे ..
जहाँ इंसानों के कह्कहे गूंजते थे..
तमाम रिश्ते वहीँ पर बनते
और पनपते थे ...
सबको फ़िक्र थी कि कहीं कोई
भूखा न सो जाये,
कोई पराया न हो जाये ....
मोहब्बतें ...
खिड़कियों से परवान चढ़ती थी
छुप छुप कर हीरें,
रांझों का दीदार करती थी...
सहेलियां हँसी ठिठोली करती थी
एक दूजे की चोटी में,
सपने बाँधा करती थी....
अब, ना वो गलियां है ना मोहल्ले
चौराहे महानगरों के बीच,
कहीं खो गए ....
बची है तो सिर्फ दीवारें,
इंसानों के बीच दीवारें
दिलों के बीच दीवारें
और रिश्तों के बीच दीवारें .....
चौराहों की महफ़िल
वीरान हो गयी ,
अब वहाँ खौफ बसता है ....
किसी का किसी पे ऐतबार नहीं,
हर निगाह में दगा बसता है....
दीवारों के इस शहर में
सिर्फ लाल रंग चटखता है,
धरती लहू से सनी पुती
आकाश से लहू बरसता है...
अब हीरें हँसती नहीं
सिसकती है
जब रांझों की आँखों में
हैवानियत देखती है ....
अब नज़रें चोरी से ढूंढती है
'वो गलियां,वो मोहल्ले,वो चौराहें
जहाँ इंसान बसते थे,
जहाँ इंसान बसते थे'....