जगतसुख की नगरी
जगतसुख की नगरी
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जगतसुख चला था देखने और पाने
सुखों की नगरी
चला जब घर से तो बाँध ली पोटली
कुछ धान की
सोचा उसने न मिला अगर देखने को
जो सोचा है वह सब
तो धान तो काम आएंगे
कुछ समय जीने को
था बड़ा अक्लमंद पर उतावला भी खूब था वह
इसलिए जब पगों पग चलते थक गया तो
बोला संभलकर नहीं कोई
सुख की नगरी अपने गाँव जैसी
लौटने का फिर किया फ़ैसला उसने उसी क्षण
आकर वह घर अपने हुआ बहुत ख़ुश
और बोला यही है सुख की नगरी नहीं है कहीं और
न जाना है मुझको अब कहीं भी ।
