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Pankaj Prabhat

Others

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Pankaj Prabhat

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जाने कब?

जाने कब?

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शांत ठंडी, हवा सी थी फितरत मेरी,

जाने कब तबियत, बवंडर हो गयी है,

टूटने लगा दायरा, आरजू की लहरों से,

जाने कब हसरत, बूँद से समंदर हो गयी है।

जाने कब मेरी तबियत, बवंडर हो गयी है…..


बहुत सधी हुई थी राहें ज़िन्दगी की,

मंज़िल के निशाँ भी नज़र आ रहे थे,

न जाने फिर ये कैसी आंधी चली की,

खूबसूरत ये इबारत, खंडहर हो गयी है।

जाने कब मेरी तबियत, बवंडर हो गयी है…..


जो मिलता गया, वो खोता भी रहा है,

बंद मुट्ठी में रेत को, समेटता चला था,

बाँहों में समेटने चला था आसमाँ को,

जेब में मुस्ससल, कंकड़ ही रह गयी है।

जाने कब मेरी तबियत, बवंडर हो गयी है…..


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