जाने दिल चला किधर जाता है
जाने दिल चला किधर जाता है
हर शाम लौट वो घर जाता है
वक़्त उसी मोड़ ठहर जाता है
ज़ब्त से ऐतबार उठ गया होगा
इरादा रुकने का मगर जाता है
दम सा घुटता है अब रातों को
साँसों में जो दर्द बिखर जाता है
बेचैनी सी धड़क रही है सीने में
जाने दिल चला किधर जाता है
आईना भी नहीं पहचानता शायद
चेहरे पर अक्स गैर उतर जाता है
कुछ ख़्वाब चुन रहे है अब तारे भी
चाँद अक्सर यूँ हो बेखबर जाता है
नींद ना आने से इक मैं परेशां नहीं
इंतज़ार में उकता बिस्तर जाता है
पेचीदा रहगुज़र है इंसानी सोच की
भटक इस पर खुद रहबर जाता है
'दक्ष' सफर हो जाता है बहुत दुश्वार
गर सरे-राह छोड़ हमसफ़र जाता है
