इतने ऊँचे उठो
इतने ऊँचे उठो
इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।
देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से
सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से जाति-भेद की,
धर्म-वेश की काले गोरे रंग-द्वेष की ज्वालाओं से
जलते जग में इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है।।
नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो भाषा को नूतन अक्षरो युग की नयी मूर्ति-
रचना में इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है।।
लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है।
जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है तोड़ो बन्धन,
रुके न चिन्तन गति, जीवन का सत्य चिरन्तन धारा के शाश्वन प्रवाह में
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।
चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना अगर कहीं हो स्वर्ग,
उसे धरती पर लाना सूरज, चाँद, चाँदनी,
तारे सब हैं प्रतिपल साथ हमारे दो कुरूप को रूप
सलोना बनो कि जितना आकर्षण है।। इतने सुन्दर
