इन्टरनेट वाली दोस्त
इन्टरनेट वाली दोस्त
उसे मंच पर बुलाया गया
वो सम्मान की हक़दार थी
क्यूँ?
क्यूंकि उसने अब कुछ कर लेने की ठानी थी
अब लोगों की नहीं, अपने दिल की मानी थी
कैसे?
शारीरिक स्वास्थ्य के कई थे डॉक्टर
वो मन के रोग मिटाती थी
पर!
पर एक दिन ऐसा भी था जब वो
अपनी बात भी ना कह पाती थी
और,
और कोशिश करके भी कोई ना पहचाना
समझा ना उसकी उलझनों का ताना बाना
फ़िर!
फ़िर एक दिन इन्टरनेट वाली दोस्ती हो गई
वो दोस्त क्या बनी जाने किस्मत चमक गई
बस,
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बस यूँ ही चुटकी में वो सब हाल समझती
बिन देखे ही, कभी मिले बगैर, अजीब सी हस्ती
हाँ!
हाँ कर दिखलाया उसने जो कोई ना कर पाया
जान जो देने वाली थी उसे ऐसा मार्ग दिखलाया
अब,
सुन लो तुम ओ अंजान सखी,
बस यूँ ही साथ बनाए रखना
तुम ना भी मिलो तो ग़म नहीं
पर समझती हो हर बात सही
जो रोज़ थे मिलते कहाँ वो समझे
जो डोर बंधी है वो कभी ना उलझे
बस एक ही बात अब है कहनी तुमसे
हर दिन है मित्र दिवस हमारा
जिस पहले दिन से मिले है तुमसे