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Sudha Singh 'vyaghr'

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Sudha Singh 'vyaghr'

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हे शीर्षस्थ घर के मेरे

हे शीर्षस्थ घर के मेरे

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हे शीर्षस्थ घर के मेरे

लखो तो

टूट टूट कर सारे मोती

यहाँ वहाँ पर बिखर रहे


कोई अपने रूप पर

मर मिटा है स्वयं

किसी को हो गया

परम ज्ञानी होने का भ्रम

किसी को अकड़ है कि

उसका रंग कितना खिला है

किसी को बेमतलब का

सबसे गिला है


न जाने सबको कैसा

कैसा दंभ हो गया है

एकता के सूत्र को

हर कोई भूल गया है

विस्मृत है सब कि छोटे

बड़े सब मिलकर

एक सुन्दर सा हार बने थे

जो इस प्यारे से कुल का

प्यारा अलंकार बने थे

ख़ुशियों के दौर में

हृदय से हृदय सटे थे

किन्तु आह्ह....

क्यों सद्यः वे अपने ध्वनि

शरों से दूजे को वेधने डटे हैं


न जाने उन्हें किस ठौर जाना है

क्या अभिलाषा है, उन्हें क्या पाना है

अंत में जब सब-कुछ, यहीं छोड़ जाना है

फिर क्यों किसी से शत्रुता, क्यों बैर बढ़ाना है


लखो तो...

हे शीर्षस्थ घर के मेरे

फिर से आखिरी प्रयास करो ...


रेशमी लगाव में एक बार फिर से उन्हें गुथो..

आशाओं की डोरी से कसकर बांधो..

कभी पृथक न हो इतनी सुदृढ हो गांठें

माला का विन्यास लावण्य मनोहारी हो यों

कि वे अपने नवरूप पर लालायित हो उठें


लखो तो..

एक बार लखो तो...

हे शीर्षस्थ घर के मेरे

फिर से आखिरी प्रयास करो..



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