है कहीं सुकून का सिरहाना
है कहीं सुकून का सिरहाना
एक थकान से चूर चूर फूलों की मालकिन की ख़्वाहिश,
अखरोट की तरह उलझी ज़िंदगी को एक किक लगाकर गिरी कंदराओं में खो जाऊँ क्या......?
ज़िंदगी का सुकून किसी अद्रश्य गीले समुन्दर में खो गया है....
जब-जब तन से पसीने के आबशार बहते हैं मैं हथेलियों को कुरेदती हूँ सुस्ताने की हल्की सी लकीर को ढूँढते.....
क्रंदन करते बीहड़ जंगलों में फंसी हिरनी सी, दिन रथ के घोड़े पर सवार होते गुम हो जाती हूँ शाम तक थकते....
झुके हुए कँधे पर किसीके परवाह भरे स्पर्श को तलाशती, हमराही वो दूर छोर पर अपनी उम्र काट रहा बस एक छरहरी नज़र के बाण चलाते आगे बढ़ जाता है.......
मैं बेघर सी बेबस थोपे हुए थपेडों की लगाम थामें अपने हिस्से की पगडंडी खोजते चलती जा रही हूँ.....
वो उस छोर से चलता करीब आता है
रात को थकी देह की भेंट चढ़ाते बाँहों का सिरहाना ढूँढते निढ़ाल अर्धध्वस्त सी आँखें मूँदे खो जाती हूँ .....
क्या ज़िंदगी के पाथेय पर एसी कोई गुंजाइश होगी किसी नारी की थकान को सिरहाने की सौगात मिले।।