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Gaurav Dwivedi

Others

4.8  

Gaurav Dwivedi

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है धरती के कर्णधार!!

है धरती के कर्णधार!!

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हे धरती के कर्णधार (हे मानव),

कैसा तेरा यह रण अपार?

यह कैसा द्वन्द घरों में है?

यह कैसा दंश दिलों में है?

सब पाने की लोलुपता में, 

यह कैसा द्वेष दिलों में है?

अहंकार के सघन वनों में, 

कैसे पुष्प पल्ल्वित होंगे?

कैसे सूर्य नया निकलेगा? 

कैसे रात चांदनी होगी?

कैसे रिमझिम बारिश होगी? 

कैसे महकेगी फुलवारी?

 जब—–

जब अहंकार वश प्रभुता का 

सिंघासन पाने को रण होगा

जब भाग्य बिना और कर्म बिना, 

सिर मुकुट पहनने व्याकुल होगा

जब विचलित, कुंठित मन तेरा,

पाप के कंटक बोता होगा

जब राजनीती और कूटनीति का, 

अपनों पर वार परस्पर होगा

जब अनाचार और दुराचार भी, 

पाप रहित लगता होगा

जब लोभ-लालसा वश अपनों का, 

रुधिर नीर सा लगता होगा

जब अपनों की आहूती देकर, 

होम-हवन पूरा ये होगा!

पर क्या इन झूठे भ्रमजालों से, 

कभी इतर तू न होगा?

रक्त सना यह राज मुकुट क्या?

शूलों सजा नहीं होगा

क्या दुनियां की भीड़ छोड़ तू? 

आत्मसात खुद से न होगा?

क्या उत्तर देगा खुद को जब, 

खुद से प्रश्न स्वयं का होगा?

क्या चन्दन का राजतिलक यह, 

लाल रक्त सा तब न होगा?

क्या होली की पावन अग्नी, 

जलती चिता सी तब न होगी?

क्या जगते दीप दिवाली के तब? 

अंधकार करते न होंगें?

क्या खेलोगे तुम बसंत? 

जब पतझर स्वयं पसारा होगा?

क्या होगा ऐसा सिंघासन जब?

साथ कोई अपना न होगा?

क्या करना ऐसा राज-पाठ?

जहाँ बाजे केवल शोक राग?

क्या करना ऐसा राज-पाठ?

जहाँ बाजे केवल शोक राग?

हे धरती के कर्णधार, काहे तेरा यह रण अपार?

काहे तेरा यह रण अपार?



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