हाँ मैं पराई हूँ
हाँ मैं पराई हूँ
जन्मी जिस घर पली बड़ी चौखट वो परायी कर गई
बाबुल के आँगन की चिड़ियाँ पंख लगे ही उड़ गई।
उफ़ान तरसता सागर थी क्यूँ बूँद-बूँद में छंट गई
बरगद की एक ठोस नींव शाखा-शाखा में बँट गई।
राह मोड़ सी चंचल हिरनी चौराहे सी ठहर गई
बंद अनार के बीज सी मानो खुलते ही बिखर गई।
नाजुक धरा है उर की उसकी छूते ही सिहर गई
पीठ सख्त पत्थर सी बन गई जिम्मेदारी ठहर गई।
हंसती खेलती नाजुक गुड़िया नार अचानक बन गई
गर्वित सी एक जीस्त जी कर यही कहानी कह गई।
खुद के लिए खुद कहाँ बनी अपनापन बाँटे चली गई
बँटती रही वो छंटती रही अपनों की ख़ातिर सहती गई।
दो दहलीज़ की ख़ातिर पगली हर ज़हर को पीती गई
कहने भर को दो घर थे पर पता कहीं ना नामों निशाँ।
मायके में पराई थी ससुराल में भी कहाँ जानी गई
एक औरत की बस पहचान यही पराई थी पराई रही।
