गूँज -लफ्ज़ काटते हैं
गूँज -लफ्ज़ काटते हैं
उमस से भरी दोपहर में अचानक गला कुछ भारी सा होने लगा,
सीने में अजीब सादर्द उठा,
ठीक बीचों बीच फिर आहिस्ता आहिस्ता
रेंगता हुआ,
दाहिने कान की तरफ बढ़ चला,
मैं हैरान कि कहीं किसी अटैक का अंदेशा
तो नहीं,
पर मेरे इस बचकाने ख्याल पर दिमाग डांट के कहता कि
अटैक का कान से क्या वाबस्ता?
कुछ सोच के मैं बरामदे की ओढ़ गया और सिगरेट जलाने केलिए,
टेबल के किनारे पे पड़ी माचिस की डिब्बी कोउठाने ही लगा कि,
हवा के थपेड़ों को झेलता फड़फड़ाता इक
कागज़ आँखों के सामने आ गया,
और सीने और कान के दर्द में और इज़ाफ़ा हो गया,
उस पन्ने को हाथ में उठाते ही दर्द तो न बुझा पर वजह से रूबरू हो गया,
वो आखिरी खत था उसका, जिसे मेरे हाथ में थमाते वक़्त
कितनी चुभती बातों के तीर दे मारे
थे उसने मुझपे,
वो एक एक लफ्ज़ नुकीले कीलों से जाके चुभे थे सीधा सीने पे,
दांत तो नहीं थे उनके पर ऐसा काटे की गहरा ज़ख्म दे गए,
तभी इतना दर्द उठ रहा है,
किसी ने सच ही कहा है लफ्ज़ काटते हैं और ऐसा कि निशाँ छोड़ जाते हैं।
