गर्मी में रोटी
गर्मी में रोटी
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मेरी व्यथा है बस इतनी,
कैसे गर्मी में रोटी बनती,
मई-जून के यह दो महीने,
लगते साल में सबसे भारी।
वीरांगना सा भाव है जगता,
जब रसोई घर में जाना होता,
युद्ध क्षेत्र से कम ना लगता,
रसोई घर का हर एक कोना।
स्वेद बूंदें जब टप टप गिरती,
शत्रु के बाणों सी लगती,
आधी कच्ची आधी पक्की,
गिन गिन कर के रोटी बनती,
दुनिया भर के नक्शे बनते,
पर गोले सी एक न बनती।
पंखा भी बैरी सा लगता,
मानो मुझ पर अट्टहास है करता,
नहाना भी व्यर्थ ही लगता,
पसीना जो तरबतर करता।
क्या पहनो कुछ समझ ना आता,
तन पर कपड़ा भारी सा लगता,
रोटी भी शायद होगी सोचती,
मुझे पर ये एहसान क्यों करती।
