गोद में नवनिर्माण
गोद में नवनिर्माण
निर्जन वन से वीरान भवन में,
धराशायी से उस आंगन में,
करती थी वो दारुण क्रंदन।
दग्ध ह्रदय व्यथित सा हर पल,
चैन नहीं पाए इक भी क्षण।
हाय मेरे लाल को छीनकर,
क्यों अन्याय किया गिरधर।
मैने नित नियम निभाए थे,
पूजा के थाल सजाए थे।
इक ही क्षण में मुंह मोड़ लिया,
धागा आस्था का तोड़ दिया।
जगती वो न सोती थी,
रह रह कर मूर्छित होती थी।
कुछ अपशगुन है मैंने टोका था,
जाते को क्यों न रोका था?
मेरी कोख को सूना करके
सुन ऐ निष्ठुर विधाता!
मेरा जीवन क्यों छोड़ा है,
क्यों प्राण मेरे न ले जाता?
पति ने साहस कर धीर दिया,
धीरज धरो कुछ मेरी प्रिया।
भाग्यलेखनी से तो स्वयं,
प्रभु ने भी पार न पाया है।
दुख सहे स्वयं उस देवी ने भी,
जो राजा जनक की जाया है।
तज शोक तनिक तुम धीर धरो,
बन सह्रदया कुछों की पीर हरो ।
तुम थामे मेरा हाथ चलो,
कुछ लेकर के सौगात चलो।
ये देखो झोपड़पट्टी है,
इसमें पैसों की सुस्ती है।
देखो इस नन्हे बालक को,
कचरे से जूठन खाता है।
खिलौने जो तोड़कर फेंके हैं,
उनसे ही दिल बहलाता है।
जिन चिथडों को फेंका हमने,
उनसे ये बदन सजाते हैं।
धनवानों के कूड़ा - करकट,
से निज भवन सजाते हैं।
विलाप अतीत का त्यागो तुम,
तजो शोक और क्रंदन को।
इन्ही बिसूरते लालों में,
देखो तुम निज नन्दन को।
खर्चो इन पर अपनी ममता,
फूंको इनमें नवजीवन प्राण।
इनके खण्डहर से जीवन का,
करो गोद में नवनिर्माण।