फ़कीर
फ़कीर
क्षत विक्षत देह
रिसते घाव लिए
बैठा मेरे द्वारे...!
कोई फ़कीर था
या मिले आघातों
से विकृत हुआ
उसका शरीर था;
उसकी अजब
थी शख्सियत
करती थी हैरान
वो सुध बुद भूला
दर्द से अनजान;
अनजान लड़ाई में
कहीं भिड़ गया था
या बदकिस्मती से
भाग्य लड़ गया था;
कम्बल के थेगड़ों से
झांकती गोल आँखें
रक्तरंजित पथरीली
घूरती चोर सरीखी
हलक लार से तर
लेकिन जुबां तीखी;
कुछ खाने को मैंने
उसके आगे रख दिया
कम्पित सा स्वर
और उसका शुक्रिया
जिसने रूह को मेरी
जैसे झकझोर दिया
ये कैसा भ्रमजाल है
क्यों वो बदहाल है?
मेरे मन को कचोटता
आज भी एक सवाल है!
जब से देखी है मैंने
उसकी जर्जर उँगलियों में
चमकती हीरे की अँगूठी!