एक सपने का सच होना
एक सपने का सच होना
सन् 2002
दिन तो अब याद नहीं
के वि भांडुप
बच्चों के साथ अकेले मुंबई में
पतिदेव चंडीगढ़ में
ट्रांसफर पर गए...
मुश्किल दौर
मज़बूरी थी
एक साथ दोनों का ट्रांसफर नहीं
अलग-अलग डिपार्टमैंट।
स्कूल की काॅलोनी में ही घर
इसलिए मुंबई की अन्य परेशानियों से बची।
एक दिन सुबह 4 बजे आँख खुली
लगा दरवाजे की घंटी बजी
समय देखा...
सोचा इस वक्त कौन होगा?
दोबारा नहीं बजी तो सो गई।
नींद दोबारा आ गई
फिर वहीं एहसास
नींद खुल गई
मानो हस्बैंड की आवाज
कब से घंटी बजा रहा था!
जल्दी से जाकर दरवाजा खोल दिया...
अपने ऊपर हँसी आई
सपना देखा होगा
चंडीगढ़ से बम्बई
कोई ऐसे ही थोड़े...
टाइम देखा, सात बजे
स्कूल देरी न हो
जल्दी-जल्दी तैयार हो
बच्चों के साथ स्कूल।
पतिदेव को गए महीना ही हुआ था
पर अचानक सुबह का स्वप्न...
माँ की बात याद आयी
सुबह के सपने सच होते है
बड़ा अनमना सा स्कूल कटा
घर जाकर बिना खाए लेट गई
बेटे ने पूछा सिरदर्द है?
कहा, नहीं आज कुछ अच्छा नहीं लग रहा
उसने पूछा -
पापा की याद आ रही?
मैं उसका मुँह देखती रह गई
उसके मुँह से पापा की बात!
पापा को बुला लो
छुट्टी लेकर आएँ...
तभी डोर बेल बजी
लम्बी...
बेटा चिल्लाया
माँ पापा पापा...
आफिस से घर आने पर
हमेशा लम्बी बेल देते थे
झटका लगा...
समझ नहीं आया...
दरवाजा खोलूँ?
तब तक बेटे ने
कुर्सी पर चढ़ खोला
जोर से चिल्लाया
पापा... पापा
मैं हतप्रभ...
चुटकी काटी
कहीं फिर तो नहीं सपना!!
नहीं जी
सुबह का सपना सच हुआ
अचानक एक मीटिंग के सिलसिले में
आना पड़ा
सोचा सरप्राइज दूँ
मैं गुमसुम
सुबह के सपने
घंटी का बजना...
ज्यादा खुशी थोड़े आँसू
बीच में बच्चों की
नोनस्टाप बातें
कभी कभी ऐसे सरप्राइज
बन जाते जीवन भर की
मीठी याद...