दूसरे परिवारों में अपना बनकर
दूसरे परिवारों में अपना बनकर
मेरे अंदर
जाने कितने संसार
रंग-बिरंगे
रल-मल करते हैं
कितने परिवारों की
कहानियाँ बसी हैं
मेरे ज़ेहन में
ठीक मेरे
अपने परिवार की तरह
इस रची-बसी दुनिया मॆं
मेरी संबंधोन्मुख भावना
उमड़ती-घुमड़ती रहती है
और मेरा लेखक
इन ठोस, घरेलू
जीते-जागते ताने-बानों को
सुलझाता रहता है जब-तब
अपने रचाव की उदारता में
दुनियावी व्यावहारिकता के
कसाव से युक्त
स्व-कवच से निकल बाहर,
इन विविधवर्णी परिवारों मॆं
होकर शामिल
घुसपैठिए तो कभी
किसी निजी सदस्य की तरह
पाया है
बहुत कुछ मैंने
इनके भरपूर प्रेम और
खुले विश्वासों के
निरंतर संयुक्त देय का
कर्ज़ चुकाना
खैर, मेरे बस का क्या है
हाँ, कुछ शब्द
बाहर आ जाते हैं
मेरी तरंगित, उत्फुल
चेतना से उठकर
जिनके स्वर को ये
अपना बनाकर
वापस भेजते हैं
मुझ तक
द्विगुणित गुंजायमान कर उन्हें
इस आवाजाही में
आ जाते हैं अपने आप
कुछ रंग कुछ राग
कविता मैं कहाँ रचता हूँ !
