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Savita Gupta

Others

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Savita Gupta

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दर्पण

दर्पण

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है आसान आईना दिखाना।

सही -ग़लत,उचित अनुचित फ़रमाना ।

चुभते जब अंतर्मन के घाव,

विकल्प बस हर हाल में है छुपाना।


वास्तविकता से पहचान कराती है।

तन के दाग दर्पण दिखाती है।

दिल के दाग से रुबरू कराए कौन?

धुँध से पर्दा हटाए कौन?


काश!सुन पाता दर्पण।

झाँकता भीतर उगे कानन।

कैसे काट ,कर दूँ अर्पण?

मुख पर झलकता नक़ली है दर्पण।


मैं भी चमकता हूँ पारे के सहारे।

चढ़ा है परत गेह हमारे।

बिन पारे के मेरा कोई वजूद नहीं। 

कहता दर्पण यह बात सही।


टूट कर मेरी कीरचें मुझ पर हँसती हैं।

पल में वजूद मिट्टी में मिल जाता है।

सँवार सको तो सँवार लो ख़ुद को,

कहता दर्पण ,पारस बना लो ख़ुद को।


उठती है उँगलियाँ उठने दो।

गिरती है बिजलियाँ गिरने दो।

रख ताक़त चीर कर अंधेरे को,

मन दर्पण सा चमकने दो।


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