दर्द
दर्द
दर्द अश्क बन ज़मीन पर गिरे
तो ज़मी भी रो पड़ी पर
तुम पर कुछ फर्क न पड़़ा, तुम
चिकने-घड़े से वहाँ से चले गए
और
आँसू अपनी कहानी कहते रहे,
दर्द को हवा देते रहे ,
दर्द नासूर बनते रहे ।
दुनिया ने यह सफर न देखा
इसलिए
वे कुछ ना कुछ कहते रहे ,
जख्म पर नमक छिड़क रहे और
जख्म कहराते रहे ।
तुम उसके केेशों मेें उलझे रहे।
फिर जख्म बगावत पर उतर आए
और खुली हवा में घूमने लगे,
तन्हाइयों के संग रहने लगे
और
खुद-पे-खुद सूख गए ,
आँसू भी थक कर बैठ गए ।
देह अब धूप में पक गई,
इस बेदर्द
दुनिया में जीना सीख गई।
जब भी धड़कन धीमी पड़ती
अपने जख्म कुरेद देती
और
धड़कन अपनी रफ़्तार पकड़ लेेेती ।
दर्द प्रेरणा बन कर्म में
समाहित हो गए और
धरती पर नए फूल खिल गए।
