दमित भाव
दमित भाव
अब मरघट पर दौड़ रही, रातें भौर उजाले सी
भूखे नंगों की बस्ती में, रोटी कोर निवाले सी
ऊंचे महलों की परछाई, झोपड़ पट्टी खाती है
गंदे चिथड़ों में लिपटी सी, अब धरणी की छाती है
दर-दर मायूस भटक रही है, देह लूटती भूख यहाँ
अब घर में चित्कार रही है, मां जननी की कूख यहाँ
क्यूँ इतनी लाचारी है, हर जीवन मजबूर यहाँ
नंगें पांवों दौड़ रहे है, विवश हो मजदूर यहाँ
कितना चिंतन करना होगा, कैसा हो नव दौर यहाँ
कितनी काली रातें होगी, कैसी हो कल भौर यहाँ
कब घायल कायल सी चिड़िया, अपने पर को खोलेगी
कब अंबर से होर करेगी , ऊंचे सुर में बोलेगी
घुटते मन की आशा निकली, दिल में निकले छाले सी
भूखे नंगों की बस्ती में रोटी कोर निवाले सी।
