धन (कुंडलियां)
धन (कुंडलियां)
धन की इस संसार में, रही सभी को चाह
जितना आया पास में, उतना ही उत्साह।
उतना ही उत्साह, भूख उतनी ही भारी
रहा लगाता दौड़, जिंदगी थकी बिचारी।
कह 'बघेल' कविराय, न देखी राह पतन की
मिला न मन को चैन, बढ़ी जब तृष्णा धन की।।१
धन के पर्वत पर खड़े, पाई एक न पास
भोग रहे ऐश्र्वर्य सब, बना बना कर न्यास।
बना बना कर न्यास, संत, नेता, व्यापारी
आमदनी कर-मुक्त, गुप्त हर चोर बाजारी।
कहो 'बघेल' कविराय, नयन तारे जन-जन के
जिनके भगवा, शुभ्र, वेश, चाकर वे धन के।।२
धन की हो जिन पर कृपा, वही पुरुष हैं धन्य
लक्ष्मी-सा मिलता उन्हें, अतुल रूप-लावण्य ।
अतुल रूप-लावण्य, जगत को मोहित करता
बुद्धि, ज्ञान, कौशल्य, उन्हीं के पास ठहरता ।
कह 'बघेल' कविराय, तृप्तियां तन की, मन की
हुई उन्हीं की पूर्ण, कृपा थी जिन पर धन की।।३