धन की लगन
धन की लगन
धन की ऐसी लगी लगन
सुध बुध खोई अपनी जो
तो ध्यान न रहा तन बदन
माया में है काया खोई
सुबह शाम बस माला जपता
धन के लालच में मोही
कर्म भी भूला धर्म भी भूला
माया की है अजब ये लीला
गरीब मजबूरों का पैसा खाया
फिर भी धन की लालसा से
तेरा पीछा छूट न पाया
पैसों की तू गठरी बांधे किंतु
कपड़ो से अपने तन को न ढांके
भूख प्यास तेरी सब उड़ जाए
तिजोरी से जब तेरी पैसा जाए
माया से तूने ऐसी प्रीत लगाई
रिश्ते नातों मे कडवाहट आई
बेशक तूने सम्पत्ति बनाई
अंत समय मे तेरे, ओ बंधु मात्र
दो गज जमीन ही काम आई
