डरा डरा सा मानव
डरा डरा सा मानव
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**डरा डरा सा मानव**
आज है मानव डरा डरा सा
तन जीवित मन मरा मरा सा।
तन को जो भी जख्म मिले थे
वो सब जख्म तो सूख चुके हैं ,
उनका कोई निशां नहीं बाकी,
मन का जख्म है हरा हरा सा।
चेहरे पर रौनक रहती थी,
पता करो वो किधर गई है,
हर दीपक क्यूं बुझा बुझा सा,
हर चेहरा है डरा डरा सा ।
दिल की बातें दिल ही जानें,
मन की अवस्था मन पहचाने,
मैं क्या समझूं मैं क्या जानूं
आज है मन क्यूं भरा भरा सा।
मानवता और भावनाओं का
बंधन अंगुली नाखून जैसा
आज वो बंधन शीशे जैसे
तिड़क रहा है ज़रा ज़रा सा।
माज़ी बढ़िया बीत गया है
हाल भी अच्छा बीत रहा है
रब्ब से दुआ है मेरी सभी का
मुस्तकबिल हो खरा खरा सा।
--एस.दयाल सिंह--
माज़ी=भूतकाल या बीता वक्त,हाल=वर्तमान, मुस्तकबिल=भविष्य ,आने वाला वक्त