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दयाल शरण

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दयाल शरण

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चूककर्त्ता

चूककर्त्ता

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जहां देखो एक होड़ नजर आती है,

भरे बाजार की सिरमौर नजर आती है।

गुल्लकें अब हिलाने पे कहाँ खनकती है,

बचपना है कि खनखनाहट खोजता है।


यह तो बाजार है बेजार कहाँ से होगा,

जेब छोटी मन बीमार हुआ जाता है।

शौक इतनी की उधारी में घी पीकर,

मालिक से किरायेदार किये जाती है।


ख्वाहिशों की डोली उठाइए घर से, 

फिर वो इक नया घर बसाती है।

पिता की देहरी नाघें कोई दुल्हन,

पति के आंगना उतर आती है।


पहले शर्माती थीं, संकुचाती थी जो,

वह आँख बड़ी निर्लज्ज हुई जाती है।

उधार तो उम्मीद माँगा करती है,

बेगैरती अकसर चुकाया नहीं करती है।


जहां देखो एक होड़ नजर आती है,

भरे बाजार की सिरमौर नजर आती है।

उधार तो उम्मीद माँगा करती हैं,

बेगैरती अकसर चुकाया नहीं करती है।


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