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चुप्पी

चुप्पी

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परीक्षा हॉल की चुप्पी

में पसरी होती है

एक विशेष क़िस्म की सुगबुगाहट

ठीक वैसे ही जैसे 

बुख़ार से तपते शिशु की 

माँ के मन में 

घर किए होती हैं

कई दुश्चिंताएं 

माँ जिस तरह हर

क़िस्म के यत्न करती है 

बुख़ार को उतारने के लिए

प्रत्याशी जूझते हैं

अधिक से अधिक प्रश्नों के 

सही उत्तर देने की

अपनी ही जिजीविषा से

 

रात बीतती जाती है

मगर नहीं छोड़ती है माँ

आशा की किरण

वैसे ही

समय के अंतिम प्रहर तक 

परीक्षार्थी 

अपने दिमाग़ के घोड़ों का

लगाम नहीं छोड़ता

सही उत्तर की तलाश में 

वह विकल्पों के जंगल में

भटकता है

और फिर गहरे आश्वस्ति भाव से 

निर्णय की कोई एक

टहनी पकड़कर

सुस्ता उठता है कुछ देर 

और किसी एक विकल्प पर 

अपनी मुहर लगा

आगे बढ़ जाता है

दूसरे अनजान प्रश्नों से

टकराने के लिए 

 

घर में माँ और

परीक्षा हॉल में 

प्रत्याशी की चुप्पी... 

दोनों ही हमें

बहादुर योद्धाओं की याद दिलाती हैं । 


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