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हरीश कंडवाल "मनखी "

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हरीश कंडवाल "मनखी "

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चल मुसाफिर

चल मुसाफिर

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माँ के गर्भ में नौ माह का किया सफर,

मिला मुझे माँ का सबसे पहले प्यार

जन्म लेते ही रोने से हुई पहली बात

नाल में लिपटकर आये खाली हाथ। 


पहली बार रोते ही माँ ने खुशी जतायी

उसके बाद बच्चे के रोने पर खुद रोयी

माँ के आँचल में दूध पीकर सफर शुरू

घुटनों के बल चलकर पहला कदम रखा। 


गिरते संभलते धरती पर पाँव रखे जैसे

जीवन यात्रा का मुसाफिर बने हम ऐसे

नाते रिश्ते मित्र सगे संबंधी अपने पराये

घर परिवार, सब थे साथी यात्री हमारे। 


यौवन का रंग चढ़ा, गाड़ी तेज भगायी

शादी के बाद घर की जिम्मेदारी आयी

माँ बाप बन, जीवन यात्रा आगे बढ़ाई

दाँत निकल गये, अक्ल दाड़ तब आयी। 


बुढ़ापे में साथी यात्री सब अलग हो गये

कोई पीछे रह गये, कोई आगे बढ़ गये

क्या खोया क्या पाया बैठे हिसाब लगाये

सब हिसाब लगाकर हासिल शून्य पाये। 


अंतिम समय आया, जीवन में क्या पाया

लोभ क्रोध, ईर्ष्या, बुराई, भलाई मोह माया

चल मुसाफिर यहीं तक है तेरा ये सफर

जीवन रूपी नाटक में हमने रोल निभाया 


सबसे लड़ झगड़ सब कुछ यहाँ कमाया

चल मुसाफिर चल अब तेरा समय आया

दो बूंद गंगा जल और तुलसी रस पाया

चार कंधों में रख, अंतिम यात्रा कर पाया। 



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