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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Tragedy

4  

सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Tragedy

चिर सो जाऊँ

चिर सो जाऊँ

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चिंतित रहकर सोचता रहता

किसे मनाऊँ और किससे रूठूँ

भर आलिंगन में किसे सुलाऊँ। 


जलते दिये-सी जलती साँसें

घुटन भरी मन प्राणों में

घनी उदासी में पीती आँसू

रुधें कंठ की नम स्वर हूँ मैं

गीत प्रीति के कैसे गाऊँ। 


स्वप्निल सी हो गई धुंधली अलकें

व्याकुल आँखें पल – पल छलकें

खो गईं कहीं झुकती पलकें

छू कर मेरे अधरों से अधर

रक्तिम छुवन से किसे जगाऊँ। 


भुजपाशों में गमकती रातें

फाल्गुन के वह दिन मुस्कुराते

चुभन-सी बन गई ये सौगातें

पवित्र हृदय की यह कसमें

आज की बेबसी कैसे मैं झुठलाऊँ। 


मैं वेदनाओं का राजकुँवर हूँ

सपनों के महल का खंडहर हूँ

अनंत अभिशापित रहगुजर हूँ

उद्विग्न व्यथाओं में जन्मा हूँ

उठी पीड़ाओं में मैं चिर सो जाऊँ। 



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