चांद को गुरूर है
चांद को गुरूर है
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"चांद को गुरूर है!!!"
गुरूर ? ??
हां गुरूर है मुझे खुद पर
तभी तो इतराता हूं!
घटता-बढ़ता, प्रकृति के क्रम को
आगे बढ़ाता हूं!
न होऊं मैं तो.. क्या
तुम रह पाओगे???
चांदनी की शीतलता को तरस जाओगे!
अभाव में गर्म तवे पर बूंद-सी तड़फड़ाओगे!
कोई कहे दूज का चांद,
कोई चौदहवीं का।
रहती ही है सब को पूर्णमासी के
चांद की प्रतीक्षा।
चौथ के चांद का भी महत्व कम नहीं है।
अपने हर रूप में, मैं सब को ही भाता हूँ
हर रिश्ते में बस मेरा ही है जलवा !!!
रमणियां बड़े प्यार से ,
प्रेमी सम निहारतीं,
चुपके-चुपके रात को
मुझसे ही तो बतियाती।
बहनें भी भाई सम मुझको ही दुलारतीं,
बच्चों को चंदा- मामा की लोरियां सुनाती।
मां की तो बात ही क्या,
चांद से लाल की तमन्ना
चांद से लाल को,
चांद-सा खिलौना ही चाहिए।
रिश्ता इक अर्द्धांगिनी का,
आ रही है करवा चौथ,
बिन देखे मुझे व्रत पारायण भी न धारतीं।।
ये तो मात्र उदाहरण है कुछ,
मेरे महत्व औ मनुहार के
सब लालायित, मुझे देखने को
किस तरह पहुंचे मुझ तक,
नित नयी खोज खंगालते।
नित नयी खोज खंगालते।।