बुढ़ापे की सनक
बुढ़ापे की सनक
मन में उठा एक सवाल
जा बैठा आईने के पास
घंटों बैठे देख रहा था
खुद को देख ये सोच रहा था
मैं धीरे-धीरे हो जाऊँगा बूढ़ा
फिर हर जगह मिलेगा मूढ़ा
क्या? कर पाऊँगा मैं मस्ती
जब हो जाऊँगा, सनकी बूढ़ा
उम्र हो जाएगी फिर कुल 60 की
बेटे की हो जाएगी.. उम्र बाप की
फिर धीरे-धीरे सब धुँधला दिखेगा
जरूरत पड़ जाएगी नकली दाँत की
हर बात पर हम चिढ़ेंगे और रूठ जाएंगे
बच्चों की तरह फिर हमें नहीं मनाएंगे
कोई कहेगा कुछ और कोई हँसेगा कुछ
मेरी इक ग़लती पर बुढ़ापे की
सनक बतलाएंगे
नहीं..नहीं..चेतना हो आई है अब मुझे
हम जैसा करेंगे, वैसा ही अपने बच्चों से
पाएंगे
बुढ़ापे की ये दशा सबको देखनी है...
फिर माँ - बाप को वृद्धाश्रम क्यों
लेकर जाएंगे
बच्चों को हम जैसा सिखाएँगे
घर से हम बाहर जैसा दिखाएंगे
बन जाएंगे वैसे ही, वो तो कोरा
कागज़ है
जिस राह को हम उनके लिए
आसान बनाएंगे
सीख लेने दो दुनिया बहुत बड़ी है
दादा, नाना चाचा, मामा के रिश्तों से
भरी है
जिसमें न कोई बुढ़ापे की सनक है
न विचारों की बंदिशें,
उड़ने दो नभ चिडियों से भरी है
