बोनसाई
बोनसाई
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बोनसाई नहीं है ज़िंदगी
ना ही जीवन का नाम
पतझड़ है
सूखी पत्तियों पर बिछा
वह तो एक
निर्बाध बहती
हर पल नदी है
शैल की ऊँचाई
रत्नाकर की गहराई है
बोनसाई कहाँ है ज़िंदगी
केवल घर की
चारदीवारी में कैद
मेहमान कक्ष में सज
अतिथि को आकर्षित करना
स्त्री का प्रारब्ध नहीं
वह बहती रहे
सदा छल-छल
कल-कल
बढ़ती रहे आगे ही आगे
इसी में है छुपी
उसके जीवन की सार्थकता
नहीं!
केवल बोनसाई
नहीं है उसकी ज़िंदगी!