बिसातखाना
बिसातखाना
छोड़ दी दिल ने आस जब
कोई पास नौकरी नहीं
बैठता हूँ रोज अपने धंधे पर
मन कहीं और अब जाता नहीं।
कब तलक भटकता दिल
अपनी क़िस्मत से ऐंठकर
उखाड़ क्या लेगी नसीब मेरी
हमसे रूठकर!
जी हाँ एक पढ़ा-लिखा बिसारती हूँ
नये-नये सामान रखता हूँ
दिन भर बक्-बक् करना पड़ता है
बिन बके कहाँ कुछ बिकता है।
सेवाधर्म मेरा यही है
दुकान को देवता समझता हूँ
दो-चार रूपये की बात नहीं
छोड़ देता हूँ खरीद भी कभी मैं उलझता नहीं हूँ..!
समझकर यही कब भगवान आ जायें
ग्राहक देवता है होता,
सन्तोष उनका महाप्रसाद
समझकर दुकान पर मैं चढ़ता हूँ..!
