अमित प्रेमशंकर

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अमित प्रेमशंकर

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बेवफाई का दौर चला है।

बेवफाई का दौर चला है।

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मोहब्बत में किसका जोर चला है 

कि अब बेवफाई का दौर चला है।

मैं किसको बताऊं हाल-ए-मोहब्बत 

इसी में हमारा ये घर भी जला है। 


थी मेरी मोहब्बत पहाड़ों से बढ़ के

समंदर भी हारा किनारो से लड के

थी मेरी मोहब्बत पहाड़ों से बढ़ के

समंदर भी हारा किनारो से लड के

बुझाने चला हूंँ चराग-ए-गमों का

मेरा दिल उसी के शहर को चला है।

मैं किसको बताऊं हाल-ए-मोहब्बत 

इसी में हमारा ये घर भी जला है। 


कभी नर्म थी ये हवाएं भी प्यारी 

हुई सख्त जब से है टूटी ये यारी 

कभी नर्म थी ये हवाएं भी प्यारी 

हुई सख्त जब से है टूटी ये यारी 

सितम इस जहां का सहाता नहीं अब 

कि शायद खुदा बेअसर हो चला है।

मैं किसको बताऊं हाल-ए-मोहब्बत 

इसी में हमारा ये घर भी जला है।



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