बेक़रारी
बेक़रारी
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अब आइना भी कपटी सा हुआ है जाता
हर दफ़ा कोई अलग चेहरा नज़र है आता
वो तकलीफ़ देंगे ऐसा मुमकिन नहीं दिखता
लार्जिश तो है लहजे में पर वादा नहीं आता
बेवजह उम्मीद रखने का फ़ाएदा नहीं लगता
खुदा का काम भी अब अदालत में नहीं बनता
मुश्किल है इन्साफ़-ए-मुंसिफ़ दिल है जानता
कितना है मुश्किल मुन्तज़िर आँखो को पता
पढ ली हैं कुछ किताबें काफ़ी कुछ है जानता
बेक़रारी को अब बेकारी का सबब है बताता