बचपन की अठखेलियाँ
बचपन की अठखेलियाँ
कलाकारी कर जाने कितने रंगों से भर दी थी हमने दीवारें
माँ तो कभी कुछ न कहती हमको पर बाबा खूब डांट मारे
दिन भर मस्ती करना खेलना कूदना बस यही काम हमारा
सुबह से बाहर निकल जाते घर में कहाँ टिकते थे पैर हमारे
दोस्तों से लड़ना-झगड़ना और फिर दहाड़े मार-मारकर रोना
रोना सुनकर माँ का हृदय सोचे सिर्फ उसके बच्चे ही बेचारे
गलती करने पर भी मिल जाता माँ से प्यार दुलार ढेर सारा
बाबा से मिली फटकार फिर भी शरारतों में न कभी हम हारे
बारिस के पानी में भीगना और फिर कीचड़ में मस्ती करना
कपड़े गंदे होने की फ़िक्र नहीं जब मिलकर खेलते दोस्त सारे
बचपन के इस मन में जाने कितने ही किस्सों का पुलिंदा था
गोद में बिठाकर जब दादी सुनाती सभी किस्से थे हमें प्यारे
पतंग उड़ाते हुए हम जाने कितने मील आगे निकल आते थे
घबराते नहीं कभी संध्या तक लौट आते थे हम दोस्त सारे
देर से लौटने पर हाथ में छड़ी लिए बाबा के दर्शन हो जाते थे
पर मासूम चेहरा देख माँ गले लगा कहती कहाँ थे मेरे प्यारे
आज भी उन बचपन की यादों को समेटकर रखना चाहता हूँ
मिलता था खूब सारा दुलार हमें वो दिन थे कितने ही प्यारे
जिंदगी में बहुत आगे निकल गए वक्त और बचपन बदल गए
याद आ जाते हैं जब खोलते हम बचपन से भरी यादों के पिटारे।