औरत,स्त्री
औरत,स्त्री
औरत के जैसा
गुण किसी में नहीं
मिला इन्हें
कुदरत का
करिश्मा है
अवगुण मुझ में
ज्ञान भरा इसी ने
जिसे मैं
माँ कह के
पुकारता हूं
क्या ग़जब की
त्याग, छमा, याचना,
ममता, प्यार, दुलार
इनमें कूट-कूट कर
समाहित होती है
इतनी बड़ा त्याग
अपना घर छोड़ना
एक पराए
पुरुष को
सब कुछ समझना
फिर एक मासूम से
फूल को जन्म देती है,
जो आगे चलकर
एक बृच्छ का
सहारा ले लेता है
सृजन
एक पौधे के जैसा
औरत करती है
मगर हमारे
अंधे समाज ने
इन्हें अपना
ग़ुलाम समझता है
ना जाने कब
ये अंधविश्वास
कि दीवारें ढहेगी
और औरत को
उसका अधिकार
हिस्से की खुशी मिलेगी।