अनुमान
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ये ज़िन्दगी एक अनुमान ही तो है,
सारा वक़्त यूँही ज़ाया कर देते हैं लोग,
अनुमान लगाने में,
किसी ने कुछ क्यों कहा, इसका
अनुमान,
किसी ने कुछ क्यों नहीं कहा, इसका भी
अनुमान,
किसी ने क्यों कब कहा, इसका अनुमान,
किसी ने क्यों कब नहीं कहा, इसका भी
अनुमान,
किसी ने कुछ किस तरह से कहा, इसका
अनुमान,
किसी ने कुछ उस तरह से क्यों नहीं कहा,
इसका भी अनुमान,
कल क्या घटेगा, इसका अनुमान,
कल क्या नहीं घटेगा, इसका भी अनुमान,
अतीत में कुछ क्यों घाटा, इसका अनुमान,
अतीत में कुछ क्यों नहीं घाटा, इसका भी
अनुमान,
कोई साथ होगा तो कैसा होगा, इसका अनुमान,
कोई साथ नहीं होगा तो कैसा होगा, इसका भी
अनुमान
कुछ ज़िन्दगी में हासिल हुआ, इसका अनुमान,
कुछ ज़िन्दगी में छूट गया, इसका भी अनुमान,
कौन कितना काबिल है, इसका अनुमान,
कौन कितना काबिल नहीं है, इसका भी अनुमान,
इस अनुमान के जाल में खुद को इस कदर
फँसा लेता है इंसान,
की ज़िन्दगी एक तड़पती मछली की तरह
इसी अनुमान में जीते जीते मर जाती है,
की शायद दो बूँद और मिल जाती,
तो जी लेती थोड़ा