अंतर्द्वंद
अंतर्द्वंद
जब नहीं था तो कुछ नहीं था
अब है तो सब कुछ है
आज तार तार से वाक़िफ हूं
कल जार जार को तरसा था।
आज मुस्कुरा कर चलता हूं
कल गुमनाम सा फिरता था
हो गया था अंजान खुद से
खो चुका था आवाज़ अपनी
दो शब्दों में ही सिमट रही थी
मेरे सपनों की कहानी।
बेजान सा ही जी रहा था
झूठी शान अपनी ढो रहा था
हो रहा था जो हर क्षण घटित
गौर से बस देखता था
सोचता अब सब छूट ही गया
उफ़! अब बस मै टूट ही गया।
लूट लेगी मुझे नाकाम सा यूं बैठना
क्या पता था सब कुछ लौटा देगा
यूं समय को गौर से देखना
जब टूटा तो बिखर सा गया था
अब सिमटा तो निखर सा गया हूं।
कल दलदल में फंस रहा था
आज चोटी पर खड़ा हूं
कल ये झोंके सहमा जाते थे
आज उनके रुख बदलता हूं।
पहले तकदीर के पीछे भागता था
अब खुद उसकी लकीरें बनाता हूं
कल जो केवल कीचड़ था
आज उसमें कमल सा खिला हूं।
जब किनारे पर था तो खाली हाथ बैठा था
आज डूबा तो खजाने से भरा हूं।
