अंत का इंतज़ार कैसा
अंत का इंतज़ार कैसा
अंत का इंतज़ार कैसा...
जब इस इंतजा़र का एक एक पल
लगता अंतहीन युग जैसा..
लगती मुझे हर इल्तिजा निष्फल
आंखों के आगे मंज़र ऐसा..
जिसकी न थी की कभी कल्पना
एक ही पल में जैसे सिमट गए हैं
जिंदगी और मौत-हंसी और रोना
सीमाएं नहीं, अब रेखाएं नहीं हैं
अब याद है बस आना और जाना
इन लकीरों में कुछ फ़र्क नहीं खा़स
एक कहानी खत्म अभी हई नहीं
दूसरी ने जैसे ले ली उसी पल सांस
इन प्राणों की मंज़िल मालूम नहीं
समझ बैठते हम,उन का जाना त्रास
क्यों देते तवज्जो इतनी इस देह को
सह न पाते उसके बदलाव हज़ार
जानती है ज़िंदगी हमारे नादां नेह को
नई नई कहानियां गढ़ती बार बार
करती हमें मजबूर,भूलने अपने ध्येय को
हंसाती,रुलाती,धमकाती इंसानों को
नचाती अपनी ही ताल पर सदा
मिथ्या भ्रम पालने हम नादानों को
कर देती मजबूर-है अजब अदा
संजोने देती हमें,बेशुमार अरमानों को
देती प्यार भी, दुलार भी, हंसी ठहाके भी
सुकून भी, चैन भी, करार भी
झूला झुलाते आशाओं के मंद - मंद झोंके भी
फिर कर देती हताश हैरान भी
छप्पर फाड़ कर देती है- कभी देती है धोखे भी
क्या आना,क्या जाना,परिप्रेक्ष्य नहीं तो कुछ भी नहीं
कदम कीचड़ में धंसते ही जाएं-चाहें न चाहें
परिप्रेक्ष्य पर है निर्भर- हम खुश रह सकते हैं या नहीं !