अनबूझ पहेली
अनबूझ पहेली


क्या पाया जड़ों से कट कर
क्या पाया गाँवों से हट कर
भूखे बच्चे तड़प रहे हैं
बूंद-बूंद को तरस रहे हैं।
शहर आए शिक्षित होने
ज्ञान धन को प्राप्त करने
नई तकनीकों को सीखकर
उन्नति के शिखर को छूने।
भूल गए संस्कृति को अपनी
परम्परा को रखा ताक पर
बने हुए अब रंगे सियार
भटक रहे हैं इधर-उधर।
खो गई मन की शांति
भ्रमित कर गई भ्रांति
उलझे हुए उलझनों में
खो रहे चेहरे की कांति।
चल रही प्रदूषित हवा
दवाओं पर जीवन पला
बेचैनियों के जंगल में
दुख के सागर से भरा।
मुंडेर पर खेतों की चलना
तालाब किनारे सैर करना
याद अब आते हैं गाँव
याद अब आती है नाव।
शहरों ने सब झपट लिया
सब कुछ अब सिमट गया।
खेतों की वो हरियाली
बन गई अनबूझ पहेली।