अमृत-ए-ख्वाहिशें
अमृत-ए-ख्वाहिशें
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फूलों में अमृत की तरह
सम्हाले रखेंगे ख्वाहिशें अपनी,
बड़ी नाज़ुक सी जो है
इन्हें दुनिया के सामने लाना,
महफ़ूज़ होंगी ये ख्वाहिशें
इतना तो यकीन है खुद पे,
पर डर रहता है कि कोई
इन्हे चुरा न ले जाये तितलियों की तरह,
यहाँ हर कोई लड़ता है
अपने ख़्वाबों-ओ-ख्वाहिशों को पूरा करने केलिए,
पर कहीं ये न हो कि खोजिये इनकी एहमियत
जंग में अपने ज़ीस्त की तरह,
बरसों लगते है इन्हे सजाने में,
उम्र निकल जाती है इन्हे सच करने में,
दुआ तो आज भी करते हैं
कि ख्वाहिशें पूरी हो सब की,
पर डर है कि खुदगर्ज़ी की आग में
ना झुलस जाये मफ़हूम इनके
जलते हुए पन्नों की तरह।