ऐ ग़ज़लों , ऐ शायरियों
ऐ ग़ज़लों , ऐ शायरियों
ऐ ग़ज़लों , ऐ शायरियों
मेरे ख्यालों में मत आया करो
यहाँ तुम्हें सुनने वाला कोई नहीं है
मेरे लबों पर मत आया करो
यहाँ तुम्हें सरहाने वाला कोई नहीं है
यहाँ मिलेगी तुम्हें एक ज़िन्दगी
पर साँस देने वाला कोई नहीं है
मानो दाखिला करवा दिया हो स्कूल में
पर फीस देने वाला कोई नहीं है
मेरी कोई दुनिया नहीं है
मात्र कही तुम दफ़न रह जाओगी
मेरी अर्थी उठेगी जो आया किसी को ख्याल तुम्हारा
देख लेना मात्र कही बन कफ़न रह जाओगी
तुम्हें लिखूंगी , मैं पढूंगी ज़रूर
पर इतनी उम्मीद मत करना मुझसे
कि तुम्हें तुम्हारा अस्तित्व दिलवा पाऊँ
आओगी याद तो हाँ बिना लिखे नहीं रह पाऊँ
मुझे माफ़ करना
मेरे साथ रहोगी तो एक किताब में बंद रहकर
जिसे शायद बहुत गहराई में दफ़नाना भी पड़ जाए
ताकि किसी को खबर न हो कि तुम ज़िंदा हो
मेरे साथ रहकर अपना सब कुछ खो दोगी तुम
और शायद वक्त ऐसी भी करवट ले
कि मुझे तुम्हें अपने हाथों से ही खोना पड़ जाए
ज़ज़्बातों को बयां ज़रूर करोगी
अनकही सी बातें ज़रूर रहोगी
अश्क भी बनोगी , आग बन भी जलोगी
राज़ बन भी छुपोगी , आवाज़ बन भी उठोगी
पर......
कभी जी नहीं पाओगी उस आज़ादी को
मैं मूरत बनाकर तुम्हारी सजा तो दूंगी तुम्हे
पर लोगों का आस्था से विश्वास उठ जाए तो मुझे मत कहना
मैं तो शायरी भी कहूँगी , ग़ज़ल भी कहूँगी
पर महफ़िल ही बहरों की हो तो मुझे मत कहना
आगाज़ करती हूँ मैं पहले ही तुम्हें
अगर रुबाई न बन पाओ तो मुझे मत कहना
पंक्तियों को रस की चाशनी सी नदी में डुबा ज़रूर दूंगी
पर जब मिलना ही खारे सागर में हो तो मुझे मत कहना
अर्थ होगा तुम्हारा अपना व्यक्तित्व होगा
सरल या दृढ़ भाषा पर अपना अस्तित्व होगा
मैं सौप दूंगी तुम्हें मुशायरों के बाजारों में
मैं सौप दूंगी तुम्हें छाले वाले हाथों , उन औज़ारों में
सौप दूंगी तुम्हें मैं नदी की धार में
सौप दूंगी तुम्हें मैं पाताल बेप्रकाश में
सौप दूंगी तुम्हें मैं लुटती इज़्ज़त के साथ
सौप दूंगी तुम्हें मैं शहीद की शिद्दत के साथ
सौप दूंगी तुम्हें हर कण में मैं
सौप दूंगी हर किसी के मन में मैं
हाँ , पिरो दूंगी बना मोती तुम्हे दुनिया की डोर में
पर धागा कच्चा निकले तो मुझे मत कहना
मेरी आखिरी साँस से रूबरू पहले ही कर दूंगी तुम्हें
पर पहले मुझसे साँस तुम्हरी निकले तो मुझे मत कहना
मत आया करो मेरे पास तुम
कही और चली जाओ जहाँ मंजिल मिले तुम्हें
मत बैठो कश्ती में जिसमें छेद है और बीच समंदर में है जो
अरे तुम चली जाओ साहिल तुम्हारे इंतज़ार में है
जिन्हें ज़रूरत है तुम्हारी , जो मुकाम देंगे तुम्हें
जो लब्ज़ों से तुम्हें ढाल सीधा दिलों तक पहुचाएंगे
माफ़ करना ऐ गज़ल , 'गुलज़ार' नहीं हम
मुसाफ़िर है हम भटकते ही जाएँगे
तुम उनके पास चली जाओ जो अभी मुकाम पर है
तुम उनके पास चली जाओ , जिनकी रोज़ी रोटी हो
तुम वहाँ जाओ जहाँ तुम्हारी ज़रूरत हो
जहाँ तुम्हें कोई बेइंतहा प्यार करे और तुम्हारे न आने पर....
रोज़ लड़ाई होती हो।
