अगर मगर
अगर मगर
अगर ये होता, तो वो होता
काश अगर वैसा हो जाता
अगर जो पंख कहीं से पाती
मुट्ठी में आकाश ले आती
अगर मेरी किस्मत में होता
चाँद सितारों को छू आती
मैंने सोचा कैसी दुविधा
अगर मगर तो अमर हुए हैं
वैसे तो जीवन से जुड़े हैं
पर बन कर अवरोध खड़े हैं
इक दिन मैंने मन में ठाना
इनसे पीछा होगा छुड़ाना
जिऊँ ज़िंदगी निज शर्तों पर
कोई काश नहीं न ही कोई अगर
मैंने अगर को दिल में दबाया
किया बंद और ताला लगाया
पर वह भी था बड़ा ही चंचल
अगले दिन ही बाहर आया
जैसे ही वो ताला था खुला
ये झटपट बस जुबां से निकला
अब मैं समझी आसां नहीं है
अगर मगर से पार यों पाना
जब तक श्वास चलेगी तन की
इसको पड़ेगा मुझे अपनाना
काश और अगर सदा से मेरी
नस नस में रग रग में घुला है
भाषा से परे धकेल भी दूँ
ये तो भावों के संग मिला है
होते होंगे कुछ महापुरुष
जिनका इससे नहीं वास्ता
पर इसने मेरी जुबां पे बैठ के
देख लिया शब्दों का रास्ता।
