अधूरी ख्वाहिश
अधूरी ख्वाहिश
एक शालीन समाज को
सपनों में देखती थी मैं,
देखकर कुरीतियां समाज की
दम घुट रहा था मेरा,
चाहती थी मैं समाज के लिये
कुछ कर पाऊँ,
अपनी कोशिशों से कुछ
परिवर्तन ला पाऊँ,
रही कुछ जिम्मेदारियां ऐसी,
कि कागज़ कलम से
नाता टूट गया मेरा।
सूख रहा है वृक्ष पानी मांग रहा है,
अभी वह जीना चाह रहा है,
कहाँ है उसका माली जानना चाह रहा है,
तमन्ना है कि फूटे विचारों की कोई डाली,
लिख डालूं सभी पन्ने अभी तक थे जो सब खाली।
माली ने बड़े ही प्यार से
रखा था उसे दिल में,
पड़ गया था सूखा मगर
वह पानी डाल रहा था उसमें,
कमज़ोर था शरीर किंतु
कलम में थी बड़ी ताकत,
चाहती थी करूं समाज के लिये
कुछ प्रेरणादायक।
चाहता था माली भी कि
यह फिर से फले फूले,
कर रहा था कोशिश वह
उसे ऊपर उठाने की,
मिल गया फिर वृक्ष को
वह साथ जिसे वह ढूंढ रहा था,
हो गया ज़िंदा जो पहले मर रहा था।
आ गई फ़िर हिम्मत अधूरी
ख़्वाहिश पूरी करने की,
समाज की कुरीतियों को
दूर करने की।
ऐ ख़ुदा दे मेरी कलम को वज़न इतना,
कि भटके को रास्ता दिखा सकूँ मैं,
हृदय में परिवर्तन ला सकूँ मैं,
उठा लिया कागज़ कलम से
फ़िर से रिश्ता जोड़ लिया मैंने,
हर पन्ने पर लिखा ऐसा कि
आईना दिखा दिया मैंने।
कुछ तो पढ़ कर भूल गये,
कुछ अजनबी सी तलाश में जुट गये,
कुछ शर्म के मारे डूब गये और
कुछ आईने तो ऐसे थे,
कि प्रतिबिम्ब देखकर खुद का
वह चकनाचूर हो गये।
होती है कवि की वह कलम खुश किस्मत,
जो समाज में सुधार करती है,
और अपनी कविता को नया आयाम देती है,
लगा दूंगी मैं भी जान अपनी,
कि मेरी कलम से वह मोती निकले,
जो एकता अखंडता समानता और
धर्मनिरपेक्षता की माला बनकर निकले।
हो रहा है जो पाप जहाँ
मैं उसे ख़त्म करना होगा।
शस्त्र से नहीं समस्या को
अभिव्यक्ति से हल करना होगा,
यही उद्देश्य है मेरा यही संकल्प है मेराI