अडिग प्रहरी
अडिग प्रहरी
पकड़ा-पकड़ी मे हंसते-खेलते हुए
मेरे साथ बढ़ते हुए
बचपन का पौधा खिलता रहा
साथ-साथ मेरे पलते हुए।
पनपने फूलने की आस में
बचपन के भोलेपन मे
तूफ़ानी बवंडरों से अन्जान रहा
चौकस निगाहों में।
खेल-खेल में जिसको सींचते हुए
आंधी-झक्खड़ में जिसे भींचते हुए
यह मेरी सोचों को सींचता रहा
मेरे अंतर्मन को समझते हुए।
धीर गंभीर मौन प्रतिक्षारत
झेलते सभी झंझावात
जड़-चेतन सभी को शरण देते हुए
न उकलाहट न उकताहट।
नन्हे पौधे का विशाल परिवर्तित रूप
अडिग प्रहरी कितनी भी कड़कती धूप
अनगिनत पंछियों का बसेरा
पथिकों को सुख देता शीतल स्वरूप।
बिना किसी लाग-लपेट
मेरे बचपने को सहेज
बड़प्पन में मुझे दूर पीछे छोड़ते हुए
अपनी घनी छत्रछाया में समेट।